Saturday, March 1, 2008

निराला - वो तोड़ती पत्‍थर

निराला की यह कविता बचपन में पढ़ी थी. तब शायद गरीबी शोषण जैसे शब्‍दों का अर्थ नहीं पता था पर फिर भी इस कविता को पढ़ने के बाद उस समय भी दिल में एक बैचेनी उठी थी एक चेहरा तांबाई रंग का जेहन में उतर गया था जो आज भी मौजूद है और मुझे रोज अपने आस पास कहीं ना कहीं दिख ही जाता है. और आज भी एक आवाज गूंजती है कानो में ठक ठक ठक और मुझे याद आती है निराला की यह कविता वो तोड़ती पत्‍थर. एक मित्र की मदद से आज ये कविता आप लोगों तक पहॅंुचा रही हूँ -

वह तोड़ती पत्थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर.

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रात मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकर.

चढ़ रही धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर.

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न्तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सुना सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
`मैं तोड़ती पत्थर!'
-निराला