हर किसी के जीवन का सबसे सुनहरा वक्त शायद 15 से 18 वर्ष के बीच का समय होता है। बचपन और युवावस्था के बीच डोलता मन ना जाने कितने सपने देखता है, कितना कुछ महसूस करता है। हर कोई कवि होता है अपनी दुनिया में । और कागजो में उतारता है अपने मन की बातें, दर्द, खुशिया सब कुछ। आज व्यस्क होने पर शायद वह सब शब्द और भावनाए बचकाने लगे पर उनमे छिपी उम्र के उस मस्त दौर की खुशबू आपको अभी भी मुस्कुराने को विवश कर देती हैं। ऐसी ही अपने उस बीते वक्त के कुछ लम्हों को मैंने एक पुरानी डायरी में पाया। 17-18 वर्ष पहले लिखे कुछ खट्टी मीठी बचकानी लाइनों ने मुझे भी उस दौर की याद दिला दी।
पहली नज़र में ओ दिल चुराने वाले
अब यह दिल अपनी नादानी पर रोता है।
*****
वह अनजान थे, दिल अनजान था
कब अश्क बह गए दर्द अनजान था।
हम परवान थे वह नादान था
संभल कर चलना था साथ दर्द का सामान था
*****
दिल के खाली पन्नों में हलकी सी रेखा खिची
देखना है शब्द बन कर खालीपन भरता है कि नहीं
*****
ज़िंदगी के पलो को हर पल रंग बदलते कई बार देखा है
अंधी आंखो में सपनो को सजते कई बार देखा है
हँसते होंठो पर अश्को को लुढ़क आते कई बार देखा है
संधे हुए कदमो को ठोकर खा कर गिर जाते कई बार देखा है
दर्द को कागज़ पर अपना अक्स बनते कई बार देखा है
*****
सुनहरे सपनो की ओढ़नी में
कभी शर्मा करअपना चेहरा भी छुपाया था
पर मै भूल गई कि मै एक बेटी थी
*****
जीवन यात्रा के मेरे यह स्थायी साथी
कुछ दुःख, कुछ चोट, कुछ ऊब कुछ क्रोध
मिटा सके जो इन सब को एक ऐसा क्रंदन चाहिए
*****
यह रचना बचपन कि एक सहेली के लिए ........
मै उदास थी जब,
तेरी हँसी याद आई तब
और मै खिल उठी, कुछ सोच कर यूहीं
मेरी नजरो में छाई क्रोध कि छाया,
तेरे सब्र का प्याला मेरे सामने लहराया
और मै दबा गई, कुछ सोच कर यूहीं
मेरी आंखो से निकली आँसुओ कि धारा
तेरी यादो ने अपना दामन बिछाया
और मै हंस पड़ी कुछ सोच कर यूहीं
तनहइयो में जब यह दिल कस्मसाया
तेरे साथ बीते पलो ने प्यार से सहलाया
और मै खो गई उनमे कुछ सोच कर यूहीं
भीड़ में जब खोने लगा ख़ुद का साया
तेरी आंखो का विश्वास मुझमे झलक आया
और मै चल पड़ी आगे कुछ सोच कर यूहीं
*****
उसी दोस्त के लिए एक और......
कोई तोड़ सकता है क्या
जीवन के नियम को
फिर डर कैसा उनसे
नही मिटा सकते वे भावना को
शरीर को कैद किया है उन्होंने
मस्तिस्क को क्या बाँध पाए वो कभी
नहीं रोक सकेंगे तेरी हँसी को वे
वैसे ही आंसू तो लुढ़केंगे ही
चाहे या अनचाहे
तो कुम्लाहट क्यों चेहरे पर तेरे
तू धरती कि बेटी है
हटा तो नही सकते वे जमीं तेरे पैरो के नीचे से
*****
सच में .....
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उस सुबह कि धुप भी प्यारी थी
उस शाम कि खुशबू न्यारी थी
हर लम्हे पर अन्ग्राई लेती
वो भरी दोपहरी भी हमारी थी
सच बचपन के दिन भी क्या दिन थे
जब हर एक शक्स अपना था
आंखो में सुंदर सपना था
जब सब कुछ अच्छा लगता था
पर सबसे अच्छा हँसना था
सच बचपन के दिन भी क्या दिन थे
कुछ पाने की ललक थी
कुछ देने की सनक थी
रोते हुए चेहरों में भी
खुशी कि ही चमक थी
सच बचपन के दिन भी क्या दिन थे
*****
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Thursday, March 13, 2008
Wednesday, March 12, 2008
जिन्दगी का द्वन्द - शशिप्रकाश
शशिप्रकाश जी हिन्दी के एक जाने माने क्रान्तिकारी कवि हैं. हाल ही में उनकी कुछ कविताओं को पढ़ते हुए उनको जाना. और उनकी एक कविता में जैसे खुद को छुपे पाया
"एक अमूर्त चित्र मुझे आकृष्ट कर रहा है.
एक अस्पष्ट दिशा मुझे खींच रही है.
एक निश्चित भविष्य समकालीन अनिश्चय को जन्म दे रहा है.
(या समकालीन अनिश्चय एक निश्चित भविष्य में ढल रहा है?)
एक अनिश्चय मुझे निर्णायक बना रहा है.
एक अगम्भीर हंसी मुझे रूला रही है.
एक आत्यांतिक दार्शनिकता मुझे हंसा रही है.
एक अवश करने वाला प्यार मुझे चिन्तित कर रहा है.
एक असमाप्त कथा मुझे जगा रही है.
एक अधूरा विचार मुझे जिला रहा है.
एक त्रासदी मुझे कुछ कहने से रोक रही है.
एक सहज जिन्दगी मुझे सबसे जटिल चीजों पर सोचने के लिए मज़बूर कर रही है.
एक सरल राह मुझे सबसे कठिन यात्रा पर लिये जा रही है."
Saturday, March 1, 2008
निराला - वो तोड़ती पत्थर
निराला की यह कविता बचपन में पढ़ी थी. तब शायद गरीबी शोषण जैसे शब्दों का अर्थ नहीं पता था पर फिर भी इस कविता को पढ़ने के बाद उस समय भी दिल में एक बैचेनी उठी थी एक चेहरा तांबाई रंग का जेहन में उतर गया था जो आज भी मौजूद है और मुझे रोज अपने आस पास कहीं ना कहीं दिख ही जाता है. और आज भी एक आवाज गूंजती है कानो में ठक ठक ठक और मुझे याद आती है निराला की यह कविता वो तोड़ती पत्थर. एक मित्र की मदद से आज ये कविता आप लोगों तक पहॅंुचा रही हूँ -
वह तोड़ती पत्थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर.
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रात मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकर.
चढ़ रही धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर.
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न्तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सुना सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
`मैं तोड़ती पत्थर!'
-निराला
वह तोड़ती पत्थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर.
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रात मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकर.
चढ़ रही धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर.
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न्तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सुना सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
`मैं तोड़ती पत्थर!'
-निराला
Thursday, February 28, 2008
ब्रेष्ट और निराला
निराला हमेशा से मेरे प्रिय कवि रहे है. उनकी कविता पहली बार मैने कक्षा दस में पढ़ी थी नाम था वो तोड़ती पत्थर. हालाकि मैने ब्रेष्ट को बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा पर एक दोस्त से मिली मंगलेश डबराल द्वारा लिखी यह कविता मन को छू गयी इसलिए इसे पोस्ट कर रही हूं
सपने में देखा कोई घर
था घर क्या टूटाफूटा-सा कमरा एक
कुर्सियाँ रखी हुई थीं बहुत पुरानी
बैठे थे उन पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और निराला
वैसे ही जैसे अपनी-अपनी तस्वीरों में दिखते थे
निराला अस्तव्यस्त बालों में गहरी ऑंखें कहीं दूर देखतीं
ब्रेष्ट उसी गोल चश्मे में दो दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी
और आँखें जैसे काफी दुनिया देख चुकी हों
सुना रहे थे कविता एक-दुसरे को
अभी कुछ और सुनाओ कहते
दोनों बीच-बीच में दुनिया के रंगढंग पर अचरज करते
कहा ब्रेष्ट ने मैं एक अँधेरे युग में रहता हूँ
निराला बोले मैं इसी अँधेरे का ताला खोलने को कहता हूँ
फिर कहा निराला ने चारों ओर घना है दुःख का जंगल
बोले ब्रेष्ट मैं रहा खोजता इस दुःख का कारण
निराला बोले मैं लड़ा कुलीनों से ब्राहमण के घर के व्यंजन छोड़े
जो असली जान हैं समाज के महंगू और झींगुर जैसे
या इलाहाबाद के पथ की वह मजदूरिन
उन पर जब लिखा मैंने
आलोचक बरसे मुझ पर कईयों ने कहा मुझे पागल
मरा हूँ हजार मरण
कहा ब्रेष्ट ने पूंजी और ताकत की निर्मम चालों पर
मैंने भी कलम चलायी उनके व्यवहारों को बारीकी से देखा
समाज की तलछट में रहनेवाले मुझे भी भले लगे
साधारण की हिम्मत और अच्छाई को दर्ज किया
अत्याचारी से बचने की तरकीबें खोजीं कई देश बदले
किसी तरह बच गया मृत्यु और यातना शिविरों से
जगह-जगह खोजता रहा शरण
कहा निराला ने जनता की ही तरह कविता की मुक्ति ज़रूरी है
बोले ब्रेष्ट जनता की मुक्ति में कविता बची हुई है
दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं
सपने में जाते दिखते दोनों ऐसे
जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से
-मंगलेश डबराल
एक जिद्दी धुन से साभार
सपने में देखा कोई घर
था घर क्या टूटाफूटा-सा कमरा एक
कुर्सियाँ रखी हुई थीं बहुत पुरानी
बैठे थे उन पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और निराला
वैसे ही जैसे अपनी-अपनी तस्वीरों में दिखते थे
निराला अस्तव्यस्त बालों में गहरी ऑंखें कहीं दूर देखतीं
ब्रेष्ट उसी गोल चश्मे में दो दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी
और आँखें जैसे काफी दुनिया देख चुकी हों
सुना रहे थे कविता एक-दुसरे को
अभी कुछ और सुनाओ कहते
दोनों बीच-बीच में दुनिया के रंगढंग पर अचरज करते
कहा ब्रेष्ट ने मैं एक अँधेरे युग में रहता हूँ
निराला बोले मैं इसी अँधेरे का ताला खोलने को कहता हूँ
फिर कहा निराला ने चारों ओर घना है दुःख का जंगल
बोले ब्रेष्ट मैं रहा खोजता इस दुःख का कारण
निराला बोले मैं लड़ा कुलीनों से ब्राहमण के घर के व्यंजन छोड़े
जो असली जान हैं समाज के महंगू और झींगुर जैसे
या इलाहाबाद के पथ की वह मजदूरिन
उन पर जब लिखा मैंने
आलोचक बरसे मुझ पर कईयों ने कहा मुझे पागल
मरा हूँ हजार मरण
कहा ब्रेष्ट ने पूंजी और ताकत की निर्मम चालों पर
मैंने भी कलम चलायी उनके व्यवहारों को बारीकी से देखा
समाज की तलछट में रहनेवाले मुझे भी भले लगे
साधारण की हिम्मत और अच्छाई को दर्ज किया
अत्याचारी से बचने की तरकीबें खोजीं कई देश बदले
किसी तरह बच गया मृत्यु और यातना शिविरों से
जगह-जगह खोजता रहा शरण
कहा निराला ने जनता की ही तरह कविता की मुक्ति ज़रूरी है
बोले ब्रेष्ट जनता की मुक्ति में कविता बची हुई है
दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं
सपने में जाते दिखते दोनों ऐसे
जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से
-मंगलेश डबराल
एक जिद्दी धुन से साभार
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