निराला हमेशा से मेरे प्रिय कवि रहे है. उनकी कविता पहली बार मैने कक्षा दस में पढ़ी थी नाम था वो तोड़ती पत्थर. हालाकि मैने ब्रेष्ट को बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा पर एक दोस्त से मिली मंगलेश डबराल द्वारा लिखी यह कविता मन को छू गयी इसलिए इसे पोस्ट कर रही हूं
सपने में देखा कोई घर
था घर क्या टूटाफूटा-सा कमरा एक
कुर्सियाँ रखी हुई थीं बहुत पुरानी
बैठे थे उन पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और निराला
वैसे ही जैसे अपनी-अपनी तस्वीरों में दिखते थे
निराला अस्तव्यस्त बालों में गहरी ऑंखें कहीं दूर देखतीं
ब्रेष्ट उसी गोल चश्मे में दो दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी
और आँखें जैसे काफी दुनिया देख चुकी हों
सुना रहे थे कविता एक-दुसरे को
अभी कुछ और सुनाओ कहते
दोनों बीच-बीच में दुनिया के रंगढंग पर अचरज करते
कहा ब्रेष्ट ने मैं एक अँधेरे युग में रहता हूँ
निराला बोले मैं इसी अँधेरे का ताला खोलने को कहता हूँ
फिर कहा निराला ने चारों ओर घना है दुःख का जंगल
बोले ब्रेष्ट मैं रहा खोजता इस दुःख का कारण
निराला बोले मैं लड़ा कुलीनों से ब्राहमण के घर के व्यंजन छोड़े
जो असली जान हैं समाज के महंगू और झींगुर जैसे
या इलाहाबाद के पथ की वह मजदूरिन
उन पर जब लिखा मैंने
आलोचक बरसे मुझ पर कईयों ने कहा मुझे पागल
मरा हूँ हजार मरण
कहा ब्रेष्ट ने पूंजी और ताकत की निर्मम चालों पर
मैंने भी कलम चलायी उनके व्यवहारों को बारीकी से देखा
समाज की तलछट में रहनेवाले मुझे भी भले लगे
साधारण की हिम्मत और अच्छाई को दर्ज किया
अत्याचारी से बचने की तरकीबें खोजीं कई देश बदले
किसी तरह बच गया मृत्यु और यातना शिविरों से
जगह-जगह खोजता रहा शरण
कहा निराला ने जनता की ही तरह कविता की मुक्ति ज़रूरी है
बोले ब्रेष्ट जनता की मुक्ति में कविता बची हुई है
दो महाकवि गले मिले बोले फिर मिलते हैं
सपने में जाते दिखते दोनों ऐसे
जैसे जीवन में साथ रहा हो बरसों से
-मंगलेश डबराल
एक जिद्दी धुन से साभार
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4 comments:
जो मार खा रोई नहीं
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देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न्तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सुना सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
`मैं तोड़ती पत्थर!'
यह कविता बचपन में हिन्दी की कोर्स की किताब में पढ़ी थी. तब शायद गरीबी शोषण जैसे शब्दों का अर्थ नहीं पता था पर फिर भी इस कविता को पढ़ने के बाद उस समय भी दिल में एक बैचेनी उठी थी एक चेहरा तांबाई रंग का जेहन में उतर गया था जो आज भी मौजूद है और मुझे रोज अपने आस पास कहीं ना कहीं दिख ही जाता है. और आज भी एक आवाज गूंजती है कानो में ठक ठक ठक और मुझे याद आती है निराला की यह कविता वो तोड़ती पत्थर. आप अगर इस पूरी कविता को मेल कर सके मुझे तो इसे ब्लाग में डालना चाहूंगी. मार्केट में तो शायद अब कक्षा 7 की वो हिन्दी की किताब अब नहीं चलती शायद बदल गयी हो. वैसे भी मोदी अडवानी के जमाने में निराला को पढ़ने वाले कितने मिलेंगे.
kal raat mein bhej doonga, vaise hamare UP board ke course mein xth class mein thee ye
हो सकता है वैसे दसवी पास किए भी 20 साल हो गये. देखती हूं अगर दसवी की हिन्दी किताब मिलती है तो. धन्यवाद आपका
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