हर किसी के जीवन का सबसे सुनहरा वक्त शायद 15 से 18 वर्ष के बीच का समय होता है। बचपन और युवावस्था के बीच डोलता मन ना जाने कितने सपने देखता है, कितना कुछ महसूस करता है। हर कोई कवि होता है अपनी दुनिया में । और कागजो में उतारता है अपने मन की बातें, दर्द, खुशिया सब कुछ। आज व्यस्क होने पर शायद वह सब शब्द और भावनाए बचकाने लगे पर उनमे छिपी उम्र के उस मस्त दौर की खुशबू आपको अभी भी मुस्कुराने को विवश कर देती हैं। ऐसी ही अपने उस बीते वक्त के कुछ लम्हों को मैंने एक पुरानी डायरी में पाया। 17-18 वर्ष पहले लिखे कुछ खट्टी मीठी बचकानी लाइनों ने मुझे भी उस दौर की याद दिला दी।
पहली नज़र में ओ दिल चुराने वाले
अब यह दिल अपनी नादानी पर रोता है।
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वह अनजान थे, दिल अनजान था
कब अश्क बह गए दर्द अनजान था।
हम परवान थे वह नादान था
संभल कर चलना था साथ दर्द का सामान था
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दिल के खाली पन्नों में हलकी सी रेखा खिची
देखना है शब्द बन कर खालीपन भरता है कि नहीं
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ज़िंदगी के पलो को हर पल रंग बदलते कई बार देखा है
अंधी आंखो में सपनो को सजते कई बार देखा है
हँसते होंठो पर अश्को को लुढ़क आते कई बार देखा है
संधे हुए कदमो को ठोकर खा कर गिर जाते कई बार देखा है
दर्द को कागज़ पर अपना अक्स बनते कई बार देखा है
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सुनहरे सपनो की ओढ़नी में
कभी शर्मा करअपना चेहरा भी छुपाया था
पर मै भूल गई कि मै एक बेटी थी
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जीवन यात्रा के मेरे यह स्थायी साथी
कुछ दुःख, कुछ चोट, कुछ ऊब कुछ क्रोध
मिटा सके जो इन सब को एक ऐसा क्रंदन चाहिए
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यह रचना बचपन कि एक सहेली के लिए ........
मै उदास थी जब,
तेरी हँसी याद आई तब
और मै खिल उठी, कुछ सोच कर यूहीं
मेरी नजरो में छाई क्रोध कि छाया,
तेरे सब्र का प्याला मेरे सामने लहराया
और मै दबा गई, कुछ सोच कर यूहीं
मेरी आंखो से निकली आँसुओ कि धारा
तेरी यादो ने अपना दामन बिछाया
और मै हंस पड़ी कुछ सोच कर यूहीं
तनहइयो में जब यह दिल कस्मसाया
तेरे साथ बीते पलो ने प्यार से सहलाया
और मै खो गई उनमे कुछ सोच कर यूहीं
भीड़ में जब खोने लगा ख़ुद का साया
तेरी आंखो का विश्वास मुझमे झलक आया
और मै चल पड़ी आगे कुछ सोच कर यूहीं
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उसी दोस्त के लिए एक और......
कोई तोड़ सकता है क्या
जीवन के नियम को
फिर डर कैसा उनसे
नही मिटा सकते वे भावना को
शरीर को कैद किया है उन्होंने
मस्तिस्क को क्या बाँध पाए वो कभी
नहीं रोक सकेंगे तेरी हँसी को वे
वैसे ही आंसू तो लुढ़केंगे ही
चाहे या अनचाहे
तो कुम्लाहट क्यों चेहरे पर तेरे
तू धरती कि बेटी है
हटा तो नही सकते वे जमीं तेरे पैरो के नीचे से
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सच में .....
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उस सुबह कि धुप भी प्यारी थी
उस शाम कि खुशबू न्यारी थी
हर लम्हे पर अन्ग्राई लेती
वो भरी दोपहरी भी हमारी थी
सच बचपन के दिन भी क्या दिन थे
जब हर एक शक्स अपना था
आंखो में सुंदर सपना था
जब सब कुछ अच्छा लगता था
पर सबसे अच्छा हँसना था
सच बचपन के दिन भी क्या दिन थे
कुछ पाने की ललक थी
कुछ देने की सनक थी
रोते हुए चेहरों में भी
खुशी कि ही चमक थी
सच बचपन के दिन भी क्या दिन थे
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4 comments:
ये जो पहले प्यार हैं, ज़िंदगी भार्परेशन करते हैं..इसीलिए आज भी ये लिखने-पढने से रिश्ता नहीं छूट रहा, आपका...कोई लडकी किस तरह महसूस करती हुए बड़ी होती है, महसूस होता है, आपको पढ़कर
Good, good poems.. but it seems u r a bit frustated with this world..something you have lost in your teens..ok..but you have done some good work in blogging..salam...
professional ji, aisa kaun hota hai, jise kishor umr mein sapno nahi dikhayi dete, zindgi adbhut roopo.n mein khul rahi hoti hai par sapno.n ke raste bhi rukne lagte hai.n. aur ladkiyo.n ki duniya, unhe sapne dekhne kee aazadi nahi hoti..kaun ladki hai, jo shuruaat se hi gahri `feeling of loss` se nahi gujrne lagtee hai
@ professional & ek ziddi dhun
आप दोनो के ही कमेण्ट्स पढ़े. एक बात जरूर कहना चाहूंगी कि ये उम्र का ऐसा दौर होता है कि आप चाहे या ना चाहे सपने अपने आप सजते हैं और शब्द बन कर बिखरते हैं. आज तो जमाना बहुत बदल गया है सब काफी आगे निकल गये हैं पर हमारे समय में सिर्फ बात सपने देखने तक ही सीमित रहती थी. और ये सपने भी बहुत धुंधले ही होते थे जरूरी नहीं कि किसी का चेहरा सामने आये ही. और कभी इन धूमिल सपनों के कारण कभी किसी और के सपनो की नियति देख कर और कभी कभी सिर्फ तुकबंदी के कारण ही ये लाइने सामने आ गयी. हमारे उस वक्त के लड़कियों की मनस्िथति अगर शब्दों में व्यक्त करनी हो तो यह लाइने शायद सबसे ज्यादा सही बैठेंगी -
......... दिल में नहीं है कोई बसा फिर भी क्यों शर्माना अच्छा लगता है
ये लाईने भी बाकि सब की तरह उसी वक्त की हैंा
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